Saturday, September 14, 2013

चलो थोड़ा ऊपर चलें

चलो थोड़ा ऊपर चलें , यहाँ से पूरा जहाँ नहीं दिखता।

दिखती हैं वो स्वार्थ की एक मैली सी पोटली,
और उसमे पल दर पल सड़ती  कुछ सफलताएँ,
मुट्ठी भर खुशियाँ और कुछ  तुच्छ सी इच्छाएँ । 

सच कहूँ तो,
इस पोटली को बगल में दबाकर, 
चले जा रहे पंथी के आगे, अधमरे कारवां का हाल नहीं दिखता ।
चलो थोडा ऊपर चलें , यहाँ से पूरा जहाँ नहीं दिखता ।

थैले धन धान्य के भरे पड़े,
इन महलों में, गोदामों में,
मंदिर की चार दीवारों में,
पर खुशियों का थैला गुम है ,
मैं भी चुप हूँ , तू भी चुप है।

भूख, चीख, चीत्कार में दबती ,
इस सन्नाटे की छाँव में छिपती,
मेरा खुद की परछाई से सरोकार नहीं दिखता।
चलो थोडा ऊपर चलें , यहाँ से पूरा जहाँ नहीं दिखता ।


Monday, May 13, 2013

कच्चे धागे

काट दो उन धागों को जो केवल बचपन में दिखा करते थे,
और मैं उन्हें कच्चे धागे समझ कर सोचता था, कल काट दूंगा ।

वो कल आज में बदल गया हैं,
और वो कच्चे धागे अभी भी उतने ही कच्चे हैं ।
बस फर्क सिर्फ इतना हैं कि मेरे बाज़ुओ में उन्हें काटने के लिए जो जज़्बा होना चाहिए,
वो उन कच्चे धागों से भी कच्चा हैं । 

हार

एक बार फिर मुझे हारना हैं ।
जीत का पल छोड़, उसे पाने की चाह में युग बिताना हैं ।
ये हार जिससे दुनिया करती हैं नफरत, को उन सभी जीतों से ऊपर लेकर जाना हैं ।
 एक बार फिर मुझे हारना हैं ।

एक बार फिर मुझे उस गड्ढे में धकेल दो, क्यूंकि मेरा निशाना वहाँ से बड़ा पक्का लगता हैं ।
वहाँ से कंकर मुझे पत्थर, और पत्थर पहाड़ जितना बड़ा दिखता हैं ।
निशाना पक्का लगाने के बाद भी मुझे उसी गड्ढे  में ही जीवन बिताना हैं ।
एक बार फिर मुझे हारना हैं ।