Saturday, September 14, 2013

चलो थोड़ा ऊपर चलें

चलो थोड़ा ऊपर चलें , यहाँ से पूरा जहाँ नहीं दिखता।

दिखती हैं वो स्वार्थ की एक मैली सी पोटली,
और उसमे पल दर पल सड़ती  कुछ सफलताएँ,
मुट्ठी भर खुशियाँ और कुछ  तुच्छ सी इच्छाएँ । 

सच कहूँ तो,
इस पोटली को बगल में दबाकर, 
चले जा रहे पंथी के आगे, अधमरे कारवां का हाल नहीं दिखता ।
चलो थोडा ऊपर चलें , यहाँ से पूरा जहाँ नहीं दिखता ।

थैले धन धान्य के भरे पड़े,
इन महलों में, गोदामों में,
मंदिर की चार दीवारों में,
पर खुशियों का थैला गुम है ,
मैं भी चुप हूँ , तू भी चुप है।

भूख, चीख, चीत्कार में दबती ,
इस सन्नाटे की छाँव में छिपती,
मेरा खुद की परछाई से सरोकार नहीं दिखता।
चलो थोडा ऊपर चलें , यहाँ से पूरा जहाँ नहीं दिखता ।